साल 2021 में पवित्र कुम्भ हरिद्वार में आयोजित हुआ था, मैं 10 दिन यहाँ रहा और हर दिन साधुओं के साथ बात करी, खाना खाया और साधुओं के साथ गंगा स्नान किया. इन 10 दिनों में मैंने कुम्भ को आत्मसात किया और अपने आपको रिफाइन करने के लिए चेतन मन को अग्रसर किया.
सोमवार की बात बताता हूँ, यह शायद तीसरा दिन था कुम्भ का. तय कार्यक्रम के अनुसार आज दिन के समय महामंडलेश्वर आने वाले हैं. महामंडलेश्वरों के साथ उनकी धार्मिक सेना आएगी जिसे हम आमतौर पर साधू महात्मा या भोले की फ़ौज कहते हैं. सुबह उठकर मैं अपने आपको तैयार कर चुका हूँ आज के धार्मिक दिन को जीने के लिए. अपने मन के बुग्यालों में ब्रह्मकमल खिलाने को तैयार मैं खड़ा नारदमुनी रास्ते पर.
सुबह 8 बजे के बाद एक के बाद एक धार्मिक झांकियां हरिद्वार की सड़कों पर गंगा की तरह बहने लगी. चारों तरफ “हर हर महादेव” के उद्घोषों से पूरा हरिद्वार गूंजने लगा, इस संगीत के साथ मैंने गंगा को थिरकते हुए देखा और सच बताऊँ तो मेरे भीतर बैठे वृद्ध इंसान ने एक गहरी सांस ली और आँखें बंद करके आज्ञाचक्र पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया. मैं बेखबर अपने आपसे और अपने ब्रह्म्क्मलों से जिन्हें मैं खिलने नहीं दे रहा.
धार्मिकता और धर्मं का समावेश सड़क पर होली के रंगों जैसा उड़ रहा है जिसमें आम इंसानों ने समर्पण कर दिया है. शंख बज रहे हैं...मधुर संगीत ने लोगों के पापी मन को अपने पवित्र धागे में बाँध दिया है. हम सबकी आँखें नहीं चाहते हुए भी नम हो गयी है, कुछ लोग इस कद्र थिरकने लगे हैं जैसे ऊर्जा ने उनके भीतर कोहराम मचा दिया हो. लोग नाच रहे हैं या अपने पापों को याद करके पापों से मुक्ति के लिए खुद से और परमात्मा से लड़ रहे हैं कहना मुश्किल है .
मैं महात्माओं के संग कदम से कदम मिलाकर चल रहा हूँ, इनके झूंड में मैं अपने आपको भेड़ समझ रहा हूँ और इनके साथ ऐसे चल रहा हूँ जैसे ये मेरे शेपर्ड हों. एक महात्मा ने गेंदे के फूलों की माला अपने गले से निकालकर मेरे गले में डाल दी है. मैं बाहर से मुस्कुरा रहा हूँ और भीतर से बुरी तरह फूट फूटकर रो रहा हूँ. जैसे-जैसे काफिला गंगा की तरफ बढ़ता है वैसे-वैसे मुझे अपने आपको रोकना मुश्किल हो जाता है.
एक लगभग 90 साल के महात्मा ने 15 साल के बच्चे की तरह गंगा में छलांग लगा दी. जहाँ मैं अपने आन्तरिक द्वंद से लड़ रहा था वहीँ इन्हीं महात्मा ने किनारे खड़े मेरा हाथ पकड़ा और सीधा गंगा में डुबो दिया. गंगा में जैसे ही मेरा सर गया वैसे ही मेरे आंसू बहने लगे, मैं सांस लेने के लिए छटपटाया तो महात्मा ने मेरे लम्बे बालों को पकड़कर बाहर निकाला. मैं सिसकते हुए बाहर आया तो देखा कि बाहर कुछ भी पहले जैसा नहीं है.
मुझे नहीं पता कि गंगा नदी ने मेरे साथ क्या किया या महात्मा ने मेरे साथ कुछ किया. मैं अच्छा महसूस कर रहा हूँ. थोड़ी देर बाद मैं गंगा किनारे बैठ गया और थोड़ी देर पहले घटी घटना को याद करने लगा हूँ. अपनी सुधबुध खोकर विचारों के जाल में फंसा हूँ...अचानक से एक सफ़ेद कपड़ों में इंसान आता है और मुझे कुछ कहकर भीड़ में ना जाने कहाँ गायब हो जाता है.
आज भी उसके शब्द मुझे ज्यों के त्यों याद हैं “गंगा ने स्वयम तेरे आंसू पोंछें हैं....अब आगे बढ़ो समन्दर की तरफ”.
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