कई महीने लगातार यह सोचकर खुद को तैयार किया कि “तू फ्री सोल है कुछ भी कर सकता है बावा” । खुद का ही माइंडवाश करने के बाद मैं साइकिल खरीदता हूँ और ‘मुसाफिर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना’ बोलकर मनाली-लेह हाईवे पर साइकिलिंग के लिए निकलता हूँ वो भी एकदम सोलो । लेह तक पहुंचने में मानो कई जन्मों का समय लगा और बीच में आयी अनेकों मुसीबतों का लेखक ने बड़े घटिया तरीके से विवरण दिया है ।
Pc: Dhanush k Dev .
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